बैठे वहीं थे..!
एक पल में वो हात छूडाकर युं चल पडे
यकीन उनका हमभी कैसे कर बैठे नहीं थे
ख्वाब सजायें अपने हात खंजर लाये थे
उन रातोंको हम बंजर समझ बैठे नहीं थे
अपना उन्हे अब मैं क्या कहूं बतावो तो
साजीशे कहीं हम खुद कर तो बैठे नहीं थे
समां बांध दिया करतें थे वो मेहफिल का
कहीं तालीयां खुद बजाते तो बैठे नहीं थे
कुछ तो बोलो दिल कि अभी तुम मेरे भी
आईनोंसे ये बातें हम करतें तो बैठे नहीं थे
पेशकश अब किस नज्मं कि करे यारों
गझलें सरे आम गुणगुणातें वो बैठे कहीं थे
उन बंद दराजों को हम शुक्रिया कहते हैं
जिन्दगीकें कुछ पन्ने खोल कर बैठे वहीं थे
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© मृदुंग
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